उपन्यास >> आँगन में एक वृक्ष (अजिल्द) आँगन में एक वृक्ष (अजिल्द)दुष्यन्त कुमार
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एक सामन्ती परिवार और उसके परिवेश का चित्रण करता दुष्यन्त कुमार की एक रोचक उपन्यास...
दुष्यन्त कुमार ने बहुत-कुछ लिखा पर जिन अच्छी कृतियों से उनके रचनात्मक
वैभव का पता चलता है, यह उपन्यास उनमें से एक है।
उपन्यास में एक सामन्ती परिवार और उसके परिवेश का चित्रण है। सामन्त जमीन और उससे मिलने वाली दौलत को कब्जे में रखने के लिए न केवल गरीब किसानों, अपने नौकर-चाकरों और स्त्रियों का शोषण और उत्पीड़न करता है, बल्कि स्वयं को और जिन्हें वह प्यार करता है, उन्हें भी बर्बादी की तरफ ठेलता है, इसका यहाँ मार्मिक चित्रण किया गया है।
उपन्यास बड़ी शिद्दत से दिखाता है कि अन्ततः सामन्त भी मनुष्य ही होता है और उसकी भी अपनी मानवीय पीड़ाएँ होती हैं, पर अपने वर्गीय स्वार्थ और शोषकीय रुतबे को बनाए रखने की कोशिश में वह कितना अमानवीय होता चला जाता है, इसका खुद उसे भी अहसास नहीं होता।
उपन्यास के सारे चरित्र चाहे वह चन्दन, भैनाजी, माँ, पिताजी और मंडावली वाली भाभी हों या फिर मुशीजी, यादराम, भिक्खन चमार आदि निचले वर्ग की हों सभी अपने परिवेश में पूरी जीवन्तता और ताजगी के साथ उभरते हैं। उपन्यासकार कुछ ही वाक्यों में उनके पूरे व्यक्तित्व को उकेरकर रख देता है। और अपनी परिणति में कथा पाठक को स्तब्ध तथा द्रवित कर जाती है। दुष्यन्त कुमार की भाषा के तेवर की बानगी यहाँ भी देखने को मिलती है—कहीं एक भी शब्द फालतू, न सुस्त।
अत्यन्त पठनीय तथा मार्मिक कथा-रचना।
उपन्यास में एक सामन्ती परिवार और उसके परिवेश का चित्रण है। सामन्त जमीन और उससे मिलने वाली दौलत को कब्जे में रखने के लिए न केवल गरीब किसानों, अपने नौकर-चाकरों और स्त्रियों का शोषण और उत्पीड़न करता है, बल्कि स्वयं को और जिन्हें वह प्यार करता है, उन्हें भी बर्बादी की तरफ ठेलता है, इसका यहाँ मार्मिक चित्रण किया गया है।
उपन्यास बड़ी शिद्दत से दिखाता है कि अन्ततः सामन्त भी मनुष्य ही होता है और उसकी भी अपनी मानवीय पीड़ाएँ होती हैं, पर अपने वर्गीय स्वार्थ और शोषकीय रुतबे को बनाए रखने की कोशिश में वह कितना अमानवीय होता चला जाता है, इसका खुद उसे भी अहसास नहीं होता।
उपन्यास के सारे चरित्र चाहे वह चन्दन, भैनाजी, माँ, पिताजी और मंडावली वाली भाभी हों या फिर मुशीजी, यादराम, भिक्खन चमार आदि निचले वर्ग की हों सभी अपने परिवेश में पूरी जीवन्तता और ताजगी के साथ उभरते हैं। उपन्यासकार कुछ ही वाक्यों में उनके पूरे व्यक्तित्व को उकेरकर रख देता है। और अपनी परिणति में कथा पाठक को स्तब्ध तथा द्रवित कर जाती है। दुष्यन्त कुमार की भाषा के तेवर की बानगी यहाँ भी देखने को मिलती है—कहीं एक भी शब्द फालतू, न सुस्त।
अत्यन्त पठनीय तथा मार्मिक कथा-रचना।
खंड एक
और इसी दिन का मुझे इन्तज़ार रहता। चन्दन भाई साहब आते तो मेरे लिए घर में
नुमाइश-सी लग जाती। रंग-बिरंगे कपड़े, अजीबो-ग़रीब खिलौने, जापानी पिस्तौल
और गोलियाँ और इनके अलावा खूबसूरत डिब्बों में बन्द टाफियाँ व चाकलेट और
यह सबकुछ अकेले मेरे लिए।
माँ हमेशा उन्हें डाँटतीं, ‘‘चन्दन, तू इतने पैसे क्यों फूँकता है रे ?’’
‘‘कहाँ बीजी ! देखो, तुम्हारे लिए तो कुछ भी नहीं लाया इस बार।’’ भाई साहब बड़ी मधुर आवाज़ में, सहज मुस्कान होठों पर लाकर सफ़ाई देते। माँ बड़बड़ाती हुई रसोईघर में चली जाती और मैं भाई साहब के और पास सरक आता। मेरी तरफ़ मुख़ातिब होते हुए वे धीरे से मेरे कान में कहते, ‘‘बीजी से ज़िक्र मत करना, उनके लिए भी साड़ी लाया हूँ। जाते हुए दूँगा।’’ फिर अचानक गम्भीर होकर पूछते, ‘‘हाँ भई, क्या प्रोग्राम है आज का ?’’
मैं प्रोग्राम का मतलब नहीं समझता था। केवल उनकी ओर प्यार और श्रद्धा से निहारता रहता। वे हँसकर मुझे अपने से चिपटा लेते और खुद ही समझाते, ‘‘तो फिर यह तय रहा कि दोपहर में म्यूज़िक, शाम को शिकार और रात में यादराम के हाथ के पराठे और तीतर ?’’
मैं गरदन हिलाकर सहमति प्रकट करता और तत्काल मेरी आँखों में यादराम की गंजी चाँद और पराँठे बेलते समय उसकी कनपटियों पर बार-बार उभरती-गिरती नसों की मछलियाँ तैरने लगतीं।
यादराम भाई साहब का ख़ानसामा था। भाई साहब जब भी मुरादाबाद से आते, यादराम साथ ज़रूर आता। दोपहर का भोजन भाई साहब माँ के रसोईघर में बैठकर करते। मगर शाम को पिताजी और मैं दोनों ही उनके साथ यादराम के हाथ के पराँठे खाते। सिर्फ़ माँ अपनी रसोई अलग पकाती थीं।
‘‘क्यों यादराम, तेरी चाँद के बाल कहाँ गए ?’’ मैं अक्सर यह सवाल उससे पूछा करता।
और यादराम हमेशा इसका एक जवाब देता, ‘‘बाबूजी के जूते चाट गए, लल्लू।’’
माँ को यादराम एक आंख नहीं भाता था। शुरू-शुरू में उन्होंने मेरे वहाँ खाने का बड़ा विरोध किया। लेकिन कुछ तो मेरी अपनी ज़िद और कुछ भाई साहब के अनुनय-अनुरोध के सामने उन्हें झुक जाना पड़ा। मुझे खूब याद है कि स्वभाव से बहुत कठोर होने के बावजूद माँ भाई साहब की बात नहीं टालती थीं। यह और बात है कि उसके बाद भी वे मुझे लेकर बराबर भाई साहब और पिताजी, दोनों को यह ताना देती रहतीं कि उन्होंने ‘छोटे’ को भी म्लेच्छ बना दिया है।
गाँव में भाई साहब एक भूचाल की तरह आते थे और डेढ़-दो हज़ार आदमियों की उस छोटी-सी बस्ती में, हर जगह, हर क़दम पर अपने नक़्श और छाप छोड़ जाते थे। उनके जाने के बाद कई दिनों तक लोग क़िस्से-कहानियों की तरह उन्हें याद करते रहते और अक्सर यही ज़िक्र हुआ करता, ‘‘देखो, कितना बड़ा आदमी है, मगर घमंड छू तक नहीं गया !’’
भिक्खन चमार—जिसे भाई साहब ‘मूविंग रेडियो स्टेशन’ कहा करते थे, उनके चले जाने के बाद, अपने ठेठ क़िस्सागोई के अन्दाज़ में उनकी कहानियाँ सुनाता, ‘‘अरे भैया, बाबू आदमी थोड़ई हैं, फिरस्ते हैं। उस दिन सुबह-सुबह बन्दूक लिये हुए आ गए। बोले—‘क्यों मुविन रेडियो-टेसन, अकेले-अकेले माल उड़ा रये हो !’’ मैंने कहा—बाबू, माल कहाँ, खिचड़ी है, तुम्हारे खाने की चीज नईं।’ बस, बिगड़ गए। बोले—‘अच्छा ! तुम अकेले खाओगे और हम तुम्हारा मुँह देखेंगे ?’ और साहब, भगवान झूठ न बुलाए, मैंने जो लुकमा बनाने के लिए थाली की तरफ़ हाथ बढ़ाया, तो धड़ाक। साला दिल धक् से हो गया। और साहब, सूँ-सूँ करता हुआ एक कव्वा भड़ाक से थाली में आगे गिरा। राम ! राम !!! राम !!! कहाँ का खाना ! हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ। क्या करता ? मगर क्या बेचूक निशाना। साले उड़ते पंछी कू जहाँ चाहा, वहाँ गिरा दिया।’’
निशाने की तारीफ़ भाई देवीसहाय जी भी किया करते थे। मगर उससे भी ज्यादा वे भाई साहब के गले पर मुग्ध थे। उनका तकिया-कलाम ‘ओख़्ख़ो जी’ था। इसलिए भाई साहब उन्हें ‘ओख़्ख़ो भाई साहब’ कहा करते थे। उनके म्यूज़िक-प्रोग्राम में बुजुर्गों का प्रतिनिधित्व केवल ‘ओख़्ख़ो भाई साहब’ किया करते थे। हम बच्चों का इस प्रोग्राम में बैठने की इजाज़त नहीं होती थी। लिहाजा हम हॉल के बन्द दरवाज़ों के पास कान लगाकर सुना करते। तबले के ठोकने, हारमोनियम के स्वर मिलाने और भाई साहब के आलाप लेने से शुरू कर ख़त्म होने तक हम कई लड़के वहाँ खड़े रहते और जब भाई देवीसहाय जी कहते, ‘अख़्ख़ोजी, क्या चीज़ सुनाई है, भाई चन्दन ! कहाँ से मार दी ?’ तो बड़े लड़के कान लगाकर ग़ौर से सुनने की कोशिश किया करते थे।
मुझे उस समय तक संगीत में इतनी दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए मुझे जब भी भाई साहब की याद आती, तो उनकी बातें और कहानियाँ सुनने के लिए मैं ओख़्ख़ो भाई साहब की बनिस्बत, भिक्खन चमार की बातें सुनना ज़्यादा पसन्द करता, जो उन्हें एक महान् और आदर्श नायक के रूप में पेश किया करता था।
लेकिन मंडावलीवाली भाभी, जो रिश्ते में हमारी कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ होती थीं, न तो भाई साहब की महानता के किस्से सुनातीं और न पौरुष के, बल्कि कई घंटों अपनी ही शैली में, उनकी बड़ी-बड़ी आँखों का और उनके रंग-रूप का, उनके सौन्दर्य का और उनकी शरारतों का हाव-भाव सहित वर्णन किया करती थीं। मेरी तरह उन्हें भी भाई साहब पसन्द थे और भाई साहब की बातें सुनाने में वे उतना ही रस लेती थीं, जितना मैं सुनने में।
‘‘पिछली बार मैंने खूब सुनाई,’’ भाभी सुनाया करती थीं, ‘‘मैंने कहा—लालाजी, कहीं भले घर के लड़के पान खाया करते हैं ! हमारे ख़ानदान में तो किसी लड़के ने शादी से पहले पान छुआ तक नहीं था। तुम्हारे ख़ानदान में अक्ल के चिराग़ ऐसे बुझ गए कि कोई कहनेवाला ही नहीं रहा।’ बस भैया, इतना सुनना था कि वे तो लगे हाथ-पाँव जोड़ने—‘अरे मेरी प्यारी गुलाबी भाभी ! मुझे माफ़ कर दो। मैं कान पकड़ता हूँ, अब कभी पान नहीं खाऊँगा।’’
माँ हमेशा उन्हें डाँटतीं, ‘‘चन्दन, तू इतने पैसे क्यों फूँकता है रे ?’’
‘‘कहाँ बीजी ! देखो, तुम्हारे लिए तो कुछ भी नहीं लाया इस बार।’’ भाई साहब बड़ी मधुर आवाज़ में, सहज मुस्कान होठों पर लाकर सफ़ाई देते। माँ बड़बड़ाती हुई रसोईघर में चली जाती और मैं भाई साहब के और पास सरक आता। मेरी तरफ़ मुख़ातिब होते हुए वे धीरे से मेरे कान में कहते, ‘‘बीजी से ज़िक्र मत करना, उनके लिए भी साड़ी लाया हूँ। जाते हुए दूँगा।’’ फिर अचानक गम्भीर होकर पूछते, ‘‘हाँ भई, क्या प्रोग्राम है आज का ?’’
मैं प्रोग्राम का मतलब नहीं समझता था। केवल उनकी ओर प्यार और श्रद्धा से निहारता रहता। वे हँसकर मुझे अपने से चिपटा लेते और खुद ही समझाते, ‘‘तो फिर यह तय रहा कि दोपहर में म्यूज़िक, शाम को शिकार और रात में यादराम के हाथ के पराठे और तीतर ?’’
मैं गरदन हिलाकर सहमति प्रकट करता और तत्काल मेरी आँखों में यादराम की गंजी चाँद और पराँठे बेलते समय उसकी कनपटियों पर बार-बार उभरती-गिरती नसों की मछलियाँ तैरने लगतीं।
यादराम भाई साहब का ख़ानसामा था। भाई साहब जब भी मुरादाबाद से आते, यादराम साथ ज़रूर आता। दोपहर का भोजन भाई साहब माँ के रसोईघर में बैठकर करते। मगर शाम को पिताजी और मैं दोनों ही उनके साथ यादराम के हाथ के पराँठे खाते। सिर्फ़ माँ अपनी रसोई अलग पकाती थीं।
‘‘क्यों यादराम, तेरी चाँद के बाल कहाँ गए ?’’ मैं अक्सर यह सवाल उससे पूछा करता।
और यादराम हमेशा इसका एक जवाब देता, ‘‘बाबूजी के जूते चाट गए, लल्लू।’’
माँ को यादराम एक आंख नहीं भाता था। शुरू-शुरू में उन्होंने मेरे वहाँ खाने का बड़ा विरोध किया। लेकिन कुछ तो मेरी अपनी ज़िद और कुछ भाई साहब के अनुनय-अनुरोध के सामने उन्हें झुक जाना पड़ा। मुझे खूब याद है कि स्वभाव से बहुत कठोर होने के बावजूद माँ भाई साहब की बात नहीं टालती थीं। यह और बात है कि उसके बाद भी वे मुझे लेकर बराबर भाई साहब और पिताजी, दोनों को यह ताना देती रहतीं कि उन्होंने ‘छोटे’ को भी म्लेच्छ बना दिया है।
गाँव में भाई साहब एक भूचाल की तरह आते थे और डेढ़-दो हज़ार आदमियों की उस छोटी-सी बस्ती में, हर जगह, हर क़दम पर अपने नक़्श और छाप छोड़ जाते थे। उनके जाने के बाद कई दिनों तक लोग क़िस्से-कहानियों की तरह उन्हें याद करते रहते और अक्सर यही ज़िक्र हुआ करता, ‘‘देखो, कितना बड़ा आदमी है, मगर घमंड छू तक नहीं गया !’’
भिक्खन चमार—जिसे भाई साहब ‘मूविंग रेडियो स्टेशन’ कहा करते थे, उनके चले जाने के बाद, अपने ठेठ क़िस्सागोई के अन्दाज़ में उनकी कहानियाँ सुनाता, ‘‘अरे भैया, बाबू आदमी थोड़ई हैं, फिरस्ते हैं। उस दिन सुबह-सुबह बन्दूक लिये हुए आ गए। बोले—‘क्यों मुविन रेडियो-टेसन, अकेले-अकेले माल उड़ा रये हो !’’ मैंने कहा—बाबू, माल कहाँ, खिचड़ी है, तुम्हारे खाने की चीज नईं।’ बस, बिगड़ गए। बोले—‘अच्छा ! तुम अकेले खाओगे और हम तुम्हारा मुँह देखेंगे ?’ और साहब, भगवान झूठ न बुलाए, मैंने जो लुकमा बनाने के लिए थाली की तरफ़ हाथ बढ़ाया, तो धड़ाक। साला दिल धक् से हो गया। और साहब, सूँ-सूँ करता हुआ एक कव्वा भड़ाक से थाली में आगे गिरा। राम ! राम !!! राम !!! कहाँ का खाना ! हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ। क्या करता ? मगर क्या बेचूक निशाना। साले उड़ते पंछी कू जहाँ चाहा, वहाँ गिरा दिया।’’
निशाने की तारीफ़ भाई देवीसहाय जी भी किया करते थे। मगर उससे भी ज्यादा वे भाई साहब के गले पर मुग्ध थे। उनका तकिया-कलाम ‘ओख़्ख़ो जी’ था। इसलिए भाई साहब उन्हें ‘ओख़्ख़ो भाई साहब’ कहा करते थे। उनके म्यूज़िक-प्रोग्राम में बुजुर्गों का प्रतिनिधित्व केवल ‘ओख़्ख़ो भाई साहब’ किया करते थे। हम बच्चों का इस प्रोग्राम में बैठने की इजाज़त नहीं होती थी। लिहाजा हम हॉल के बन्द दरवाज़ों के पास कान लगाकर सुना करते। तबले के ठोकने, हारमोनियम के स्वर मिलाने और भाई साहब के आलाप लेने से शुरू कर ख़त्म होने तक हम कई लड़के वहाँ खड़े रहते और जब भाई देवीसहाय जी कहते, ‘अख़्ख़ोजी, क्या चीज़ सुनाई है, भाई चन्दन ! कहाँ से मार दी ?’ तो बड़े लड़के कान लगाकर ग़ौर से सुनने की कोशिश किया करते थे।
मुझे उस समय तक संगीत में इतनी दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए मुझे जब भी भाई साहब की याद आती, तो उनकी बातें और कहानियाँ सुनने के लिए मैं ओख़्ख़ो भाई साहब की बनिस्बत, भिक्खन चमार की बातें सुनना ज़्यादा पसन्द करता, जो उन्हें एक महान् और आदर्श नायक के रूप में पेश किया करता था।
लेकिन मंडावलीवाली भाभी, जो रिश्ते में हमारी कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ होती थीं, न तो भाई साहब की महानता के किस्से सुनातीं और न पौरुष के, बल्कि कई घंटों अपनी ही शैली में, उनकी बड़ी-बड़ी आँखों का और उनके रंग-रूप का, उनके सौन्दर्य का और उनकी शरारतों का हाव-भाव सहित वर्णन किया करती थीं। मेरी तरह उन्हें भी भाई साहब पसन्द थे और भाई साहब की बातें सुनाने में वे उतना ही रस लेती थीं, जितना मैं सुनने में।
‘‘पिछली बार मैंने खूब सुनाई,’’ भाभी सुनाया करती थीं, ‘‘मैंने कहा—लालाजी, कहीं भले घर के लड़के पान खाया करते हैं ! हमारे ख़ानदान में तो किसी लड़के ने शादी से पहले पान छुआ तक नहीं था। तुम्हारे ख़ानदान में अक्ल के चिराग़ ऐसे बुझ गए कि कोई कहनेवाला ही नहीं रहा।’ बस भैया, इतना सुनना था कि वे तो लगे हाथ-पाँव जोड़ने—‘अरे मेरी प्यारी गुलाबी भाभी ! मुझे माफ़ कर दो। मैं कान पकड़ता हूँ, अब कभी पान नहीं खाऊँगा।’’
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